जन्म लिया जब मृत्युलोक में,
पहली छवि उस गुरु की थी।
बलशाली कर कमलों में जिसके,
उगते युग की झांकी थी।
नम नेत्र थे हम दोनों के,
चार आँख थे वे अनिमेष।
बात है ये उस गुरु की जिसने,
जीवन में पहले लिया प्रवेश।
जीवन भर जिसने दिए उपदेश,
जिसके आँचल में भर रखा,
सिद्धियों निधियों का निवेश।
समक्ष थे वे निर्माता युग के,
जब विद्या मंदिर की ओर बढ़े कदम,
युग प्रवर्तक वाणी में जिनके,
ज्ञान की नदियों का था उदगम।
अज्ञानता के ढलान से लेकर,
ज्ञान के उत्तम शीर्ष तक।
जड़ता के शमशान से लेकर,
चेतनता की बस्ती तक।
उनके ही पद्चिन्हों पर,
हमने यह नेत्र बिछाये थे,
जिन पर बढ़कर हमने यह पाया,
विरले ही वह जीव थे।
हाँ, विरले ही वह जीव थे,
जिसने ठाना यह ध्येय था,
धरती को उसका पथ बतलाना,
उसका ही तो लक्ष्य था।
वह जीव नही विधाता है,
जिसका जीवन सिखलाता है,
परम आनंद है उसी कार्य में
जिसमे परहित सधता है।
The author is a 12th student from Renukoot and is passionate about writing.