By Varsha Singh
कभी समझकर ये नासमझ बचपन ना भूल जाना,
नन्हे नन्हे कदमो का हमारी ज़िन्दगी में आना,
फूल सी मुस्कान से हमारी बगिया महकाना,
सरपट सरपट इधर उधर भागना,
सावन की पहली बारिश में सोंधी मिट्टी सा महकना,
तुतलाती आवाज में हमसे बातें करना,
नटखट सी शरारतों से ज़िन्दगी में रंग भरना,
कभी गले लग कर धीमे से सो जाना,
हमारी अंजान बातों पर मंद मंद मुस्कुराना,
अपनी मासूम अदाकारी से घर आंगन सजाना,
सुन्दर सी दुनिया को अपने हांथो में भरने का सपना,
और कभी सोते सोते रो पड़ना,
अपने खिलोने पुरे घर में बिखेरना,
सड़क पर चलते कुदरत को निहारना,
चंचल मस्तियो से हम सबका दिल जीत जाना,
नन्ही सी आँखों में बड़े बड़े सपने संजोना कभी चाहत चाँद को पाने की करना,
पापा के कंधो पर घूमना कभी माँ के आंचल में छुप जाना,
बारिश में कागज की कश्ती तैराना,
बेफ़िक़्र यारों के साथ गलियों में घूमना,
लुका छुपी के खेल से जी भर के खिलखिलाना,
ना बीते कल की परवाह ना आने वाले कल का डर सताना,
अपनी छोटी सी दुनिया में मस्ती से झूमना,
गुड्डे गुड़ियों की शादी रचाना,
वो मिट्टी से खेलना कभी साइकिल से गिर जाना,
माँ पापा सुनने के लिए हमे तरसाना,
तो कभी प्यारी किलकारियों से हमे रिझाना,
अपनी हर अदा से हमे हमारा बचपन याद दिलाना,
ताज़ी हवा और टूटे खिलौने में भी खुशियाँ ढूंढ लेना,
आसमान में पतंगे उड़ाना, बचपन के खजाने को संजोना,
बड़े होकर दुनिया की चका चौंध में कभी खुद को ना भूल जाना,
कभी समझकर ये नासमझ बचपन ना भूल जाना । ।
The author is a Sweden-based Software Engineer whose inspiration in life is her newly-born son.