My small town memories of durga Puja

मेले में गर्दन हिलाता बुढ़वा और दुर्गा पूजा : मेरा छोटा सा शहर और उससे जुड़ी मेरी यादें

By Kiran Singh

हमारा बचपन गाजीपुर जो एक छोटा सा शहर है ,जिसे लहुरी काशी के नाम से भी जाना जाता है वहाँ बीता | हर साल दुर्गा पूजा और दशहरा आते ही मैं कहीं रहूँ ,बचपन का यह त्योहार अपनी खूबसूरत यादों के साथ मुझे मेरा बचपन और उसकी मीठी यादों को लेकर सामने आ ही जाता है|

दशहरे के दिन हम पांच बहने अपने भैया के साथ नया -नया फ्रॉक पहन कर ,अम्मा बाबूजी का पैर छू कर मेला जाने के लिए तैयार हो जाते थे । मेले में खान – पान के ठेले ,गर्दन हिलाता बुढ़वा ,रंग बिरंगे खिलौने बहुत आकर्षित करते ।लेकिन हमलोगों को मूंगफली से ही संतोष करना पड़ता था ।मेले की खुली चीजों को खाना तो दूर रहा ,उधर देखना भी मना था।

भीड़ -भाड़ होने से पहले ही हम सब एक दूसरे का हाथ पकड़े ,एक चपरासी के साथ निकल पड़ते थे । थोड़ी देर मेले की रौनक और रावण का विशाल काय पुतला देख कर हमलोग अपने बहुत पुराने मित्र परिवार जो लंका और रेलवे स्टेशन के पास रहते थे ,वहां पहुंच कर मूंगफली चटकाते,दिन की बनी पूरी कचौड़ी खाते और उनके घर के छत से रावण जलना देखते। जब सड़क की भीड़ -भाड़ कम होने लगती तब हमलोग घर आते थे।
तब इसी मेले में जाने की कितनी लालसा रहती थी। मानो संसार की सारी खुशियाँ हाथ फैलाये सामने से पुकार रही हों।
दुर्गा पूजा की तो बात ही निराली थी। हमारे घर के सामने ही माँ की मूर्ति स्थापित होती थी। उस समय केवल वहीं एक स्थान पर पूजा का आयोजन होता था। षष्टी से नवमी तक हम लोग दिन भर वहीं भाग -भाग कर पहुँच जाते। शाम को रंगा रंग कार्यक्रम होता था। कभी – कभी कोई फ़िल्म भी दिखाई जाती थी। वाह, क्या जोश ,उल्लास रहता था। निश्चिंतऔर बेपरवाह हो त्योहारों का आनंद लेते थे। वह आनंद,वह खुशी अब दुर्लभ है।
 
दुर्गा विसर्जन के बाद पूरा परिसर उदास सा हो जाता था ।क्यों माँ को इतनी धूम धाम से लाया जाता है ,फिर विसर्जित कर दिया जाता।क्यों ,क्यों ? यह प्रश्न मन में बार -बार जगता था। लेकिन बड़े होने पर पता चला कि यही तो प्रकृति का नियम है ,जो आता है ,उसे जाना ही पड़ता है ।

हर्षोल्लास का ये दोनों पर्व इस वर्ष भी आया ।पर कहाँ गयी वह पुरानी रौनक ? ,सूनी उदास सड़कें न ही उत्साह और न ही उल्लास। बस रह गयी बचपन की मधुर यादें ।अपना बचपना जो जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे जाता है उसे हमारे ये पर्व आकर ,फिर से सब कुछ जीवंत कर हमारे जीवन को खुशनुमा बना जाते हैं । अब हम अपने नाती ,पोतों की आँखों में अपना बचपन खोजने की कोशिश करते हैं ।काश उनके माध्यम से ही अपना बचपन एक बार फिर जी लें । बस यही तो चाह है ।हालांकि यह मालूम है कि बीता हुआ पल दुबारा नहीं आता।

The writer is Mumbai based homemaker and avid traveller. Even at 60-plus, she continues to go for a sibling trip each year.

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