लॉकडाउन के वक़्त सुनसान पड़ी गुड़गांव और गाज़ियाबाद की सड़कें।

गुड़गांव से गाज़ियाबाद की यात्रा: जीवन का एक ही मूल मंत्र – मानव और प्रकृति में सामंजस्य

रेखा सिंह , नई दिल्ली

4 मार्च को आखिरी बार मैं घर से बाहर निकली थी। उसके बाद तो कॅरोना का कहर ऐसे वेग से आया कि न केवल मेरा बल्कि सभी का जीवन जैसे थम सा गया। कॉलोनी में क्या- घर की सीढ़ियों से नीचे उतरना भी बंद हो गया। मोदी जी का आश्वासन और विश्वास देखकर मन में आस थी कि बस कुछ दिनों की बात है, फिर सब जस का तस हो जाएगा। लेकिन यह क्या – कहर बढ़ता ही गया और अपने-अपने पिजरों में कैद हो दिन बिताते रहे ।

आज 5 महिनों के पश्चात हमलोग गाज़ियाबाद, जहाँ मेरा छोटा बेटा रहता है, अपनी गाड़ी में पूरी एहतियात बरतते हुए बच्चों के साथ निकल ही पड़े ।

ओह! कितने आनंद की अनुभूति हो रही थी ,खुली सड़क पर निकल कर। बहुत कम ट्रैफिक थी। वही सड़कें चौड़ी चौड़ी लग रही थीं। पेड़ पौधे पहले की अपेक्षा ज्यादा ही हरे भरे झूमते प्रसन्नचित्त दिख रहे थे। बस मेरा मन भी आजाद पंछी की तरह ,बरसाती मदमस्त हवा की तरह झूम उठा।

जिस रास्ते पर जाम में फंस कर यात्रा उबाऊ और लम्बा लगता था ।आज वही रास्ता कितना मनमोहक ,दिलकश प्रतीत हो रहा था। जी चाहता था कि चलते चलो ,चलते चलो ।बच्चे भी इतने खुश थे मानो मुँह मांगी मुराद पूरी हो गई हो। दिल्ली की हरियाली ,उन्मुक्त आकाश में कलरव करती हुई पक्षियां,बाग बगीचे ,रंग बिरंगे फूल सब कुछ मन में बसा लेने का जी कर रहा था। वास्तव में अब आजादी से जीने का एक एहसास तो हुआ ,लेकिन अब भी बाहर निकलने में एक अनजाना ,जान मारू डर सताने के लिये आगे पीछे घूमता सा प्रतीत हो रहा था।

लॉकडाउन के वक़्त सुनसान पड़ी गुड़गांव और गाज़ियाबाद की सड़कें।
लॉकडाउन के वक़्त सुनसान पड़ी गुड़गांव और गाज़ियाबाद की सड़कें।

जन मानव के कोलाहल से दूर ,भीड़ भाड़ से मुक्त प्रकृति तो खुश है ,लेकिन उसकी हरितमा, उसके सौंदर्य का आनंद लेने वाला इंसान कहाँ?सब भयभीत अपने अपने बनाये जंजीरों में ,पिंजरों में मन मारे दुबके पड़े हैं ।अब इंसान को समझना पड़ेगा कि जीवन भौतिक सुखों में नहीं बल्कि प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने में ही है – अंधाधुंध भागने में नहीं।

फिर क्या ,मैंभी बरसाती हवा बन एक स्थान से दूसरे स्थान पर निर्द्वंद हो विचरण कर सकूं।

लेखक – रेखा सिंह, अवकाश प्राप्त अध्यापिका है। (Retired teacher)

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